"श्रीमद् भगवद् गीता सार"
परमेश्वर की खोज में आत्मा युगों से लगी है। जैसे प्यासे को जल की चाह
होती है। जीवात्मा परमात्मा से बिछुड़ने के पश्चात् महा कष्ट झेल रही है। जो सुख
पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) के सतलोक (ऋतधाम) में था, वह सुख यहाँ काल (ब्रह्म) प्रभु
के लोक में नहीं है। चाहे कोई करोड़पति है, चाहे पृथ्वीपति(सर्व पृथ्वी का राजा)
है, चाहे सुरपति(स्वर्ग का राजा इन्द्र) है, चाहे श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव
त्रिलोकपति हैं। क्योंकि जन्म तथा मृत्यु तथा किये कर्म का भोग अवश्य ही प्राप्त
होता है (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5)। इसीलिए पवित्रा
श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञान दाता प्रभु (काल भगवान) ने अध्याय 15 श्लोक 1 से
4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि अर्जुन सर्व भाव से उस परमेश्वर की
शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शांति को तथा सतलोक (शाश्वतम्
स्थानम्) को प्राप्त होगा। उस परमेश्वर के तत्व ज्ञान व भक्ति मार्ग को मैं (गीता
ज्ञान दाता) नहीं जानता। उस तत्व ज्ञान को तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनको
दण्डवत प्रणाम कर तथा विनम्र भाव से प्रश्न कर, तब वे तत्वदृष्टा संत आपको
परमेश्वर का तत्व ज्ञान बताएंगे। फिर उनके बताए भक्ति मार्ग पर सर्व भाव से लग
जा (प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34)। तत्वदर्शी संत की पहचान गीता अध्याय
15 श्लोक 1 में बताते हुए कहा है कि यह संसार उल्टे लटके हुए वृक्ष की तरह
है। जिसकी ऊपर को मूल तथा नीचे को शाखा है। जो इस संसार रूपी वृक्ष के
विषय में जानता है वह तत्वदर्शी संत है। गीता अध्याय 15 श्लोक 2 से 4 में कहा है कि उस संसार रूपी वृक्ष की तीनों गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव)
रूपी शाखा है। जो (स्वर्ग लोक, पाताल लोक तथा पृथ्वी लोक) तीनों लोकों में
ऊपर तथा नीचे फैली हैं। उस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष के विषय में अर्थात्
सृष्टी रचना के बारे में मैं इस गीता जी के ज्ञान में नहीं बता पाऊंगा। यहां विचार
काल में (गीता ज्ञान) जो ज्ञान आपको बता रहा हूँ यह पूर्ण ज्ञान नहीं है। उसके
लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में संकेत किया है जिसमें कहा है कि पूर्ण ज्ञान
(तत्व ज्ञान) के लिए तत्वदर्शी संत के पास जा, वही बताएंगे। मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं
है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात्
उस परमपद परमेश्वर (जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है)
की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक पुनर् लौटकर वापिस नहीं
आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। जिस पूर्ण परमात्मा से उल्टे संसार रूपी
वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है। भावार्थ है कि जिस परमेश्वर ने सर्व
ब्रह्मण्डों की रचना की है तथा मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) भी उसी आदि पुरुष
परमेश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरण हूँ। उसकी साधना करने से अनादि मोक्ष
(पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है।
तत्वदर्शी संत वही है जो ऊपर को मूल तथा नीचे को तीनों गुण (रजगुण-ब्रह्म
जी, सतगुण-विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) रूपी शाखाओं तथा तना व मोटी डार
की पूर्ण जानकारी प्रदान करता है। (कृप्या देखें उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष
का चित्रा)
अपने द्वारा रची सृष्टी का पूर्ण ज्ञान (तत्वज्ञान) स्वयं ही पूर्ण परमात्मा
कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने तत्वदर्शी संत की भूमिका करके (कविर्गीर्भिः) कबीर
वाणी द्वारा बताया है (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्रा 16 से 20 तक तथा
ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 90 मंत्रा 1 से 5 तथा अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्रा
1 से 7 में)।
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, ज्योति निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
पवित्रा गीता जी में भी तीन प्रभुओं (1. क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, 2. अक्षर पुरुष
अर्थात् परब्रह्म तथा 3. परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) के विषय में वर्णन है। प्रमाण
गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17, अध्याय 8 श्लोक 1 का उत्तर श्लोक 3 में है वह परम
अक्षर ब्रह्म है तथा तीन प्रभुओं का एक और प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 25 में गीता
ज्ञान दाता काल (ब्रह्म) ने अपने विषय में कहा है कि मैं अव्यक्त हूँ। यह प्रथम अव्यक्त
प्रभु हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि यह संसार दिन के समय
अव्यक्त(परब्रह्म) से उत्पन्न हुआ है। फिर रात्रा के समय उसी में लीन हो जाता है।
यह दूसरा अव्यक्त हुआ। अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त से भी
दूसरा जो अव्यक्त(पूर्णब्रह्म) है वह परम दिव्य पुरुष सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी
नष्ट नहीं होता। यह तीसरा अव्यक्त हुआ। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक
17 में भी है कि नाश रहित उस परमात्मा को जान जिसका नाश करने में कोई
समर्थ नहीं है। अपने विषय में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) प्रभु अध्याय 4 मंत्रा 5 तथा
अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि मैं तो जन्म-मृत्यु में अर्थात् नाशवान हूँ।
उपरोक्त संसार रूपी वृक्ष की मूल (जड़) तो परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण
ब्रह्म कविर्देव है। इसी को तीसरा अव्यक्त प्रभु कहा है। वृक्ष की मूल से ही सर्व पेड़
को आहार प्राप्त होता है। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि
वास्तव में परमात्मा तो क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म से
भी अन्य ही है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है वही
वास्तव में अविनाशी है।
1. क्षर का अर्थ है नाशवान। क्योंकि ब्रह्म अर्थात् गीता ज्ञान दाता ने तो स्वयं
कहा है कि अर्जुन तू तथा मैं तो जन्म-मृत्यु में हैं (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक
12, अध्याय 4 श्लोक 5 में)।
2. अक्षर का अर्थ है अविनाशी। यहां परब्रह्म को भी स्थाई अर्थात् अविनाशी
कहा है। परंतु यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह चिर स्थाई है जैसे एक
मिट्टी का प्याला है जो सफेद रंग का चाय पीने के काम आता है। वह तो गिरते
ही टूट जाता है। ऐसी स्थिति ब्रह्म (काल अर्थात् क्षर पुरुष) की जानें। दूसरा प्याला
इस्पात (स्टील) का होता है। यह मिट्टी के प्याले की तुलना में अधिक स्थाई
(अविनाशी) लगता है परंतु इसको भी जंग लगता है तथा नष्ट हो जाता है, भले
ही समय ज्यादा लगे। इसलिए यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। तीसरा प्याला
सोने (स्वर्ण) का है। स्वर्ण धातु वास्तव में अविनाशी है जिसका नाश नहीं होता।
जैसे परब्रह्म (अक्षर पुरुष) को अविनाशी भी कहा है तथा वास्तव में अविनाशी
तो इन दोनों से अन्य है, इसलिए अक्षर पुरुष को अविनाशी भी नहीं कहा है ।
कारण :- सात रजगुण ब्रह्मा की मृत्यु के पश्चात् एक सतगुण विष्णु की मृत्यु होती
है। सात सतगुण विष्णु की मृत्यु के पश्चात् एक तमगुण शिव की मृत्यु होती है।
जब तमगुण शिव की 70 हजार बार मृत्यु हो जाती है तब एक क्षर पुरुष (ब्रह्म)
की मृत्यु होती है। यह परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक युग होता है। एैसे एक हजार
युग का परब्रह्म का एक दिन तथा इतनी ही रात्रा होती है। तीस दिन रात का एक
महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की आयु
है। तब यह परब्रह्म तथा सर्व ब्रह्मण्ड जो सतलोक से नीचे के हैं नष्ट हो जाते हैं।
कुछ समय उपरांत सर्व नीचे के ब्रह्मण्डों (ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोकों) की रचना
पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरुष करता है। इस प्रकार यह तत्व ज्ञान समझना है।
परन्तु परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) तथा उसका सतलोक
(ऋतधाम) सहित ऊपर के अलखलोक, अगम लोक तथा अनामी लोक कभी नष्ट
नहीं होते।
इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में उत्तम प्रभु
अर्थात् पुरुषोत्तम तो ब्रह्म (क्षर पुरुष) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) से अन्य ही है जो पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) है। वही वास्तव में अविनाशी है। वही सर्व का
धारण-पोषण करने वाला संसार रूपी वृक्ष की मूल रूपी पूर्ण परमात्मा है। वृक्ष का
जो भाग जमीन के तुरंत बाहर नजर आता है वह तना कहलाता है। उसे अक्षर
पुरुष (परब्रह्म) जानो। तने को भी आहार मूल (जड़) से प्राप्त होता है। फिर तने
से आगे वृक्ष की कई डार होती हैं उनमें से एक डार ब्रह्म (क्षर पुरुष) है। इसको
भी आहार मूल (जड़) अर्थात् परम अक्षर पुरुष से ही प्राप्त होता है। उस डार (क्षर
पुरुष/ब्रह्म) की मानों तीन गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण-शिव)
रूपी शाखाएं हैं। इन्हें भी आहार मूल (परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त
होता है। इन तीनों शाखाओं से पात रूप में अन्य प्राणी आश्रित हैं। उन्हें भी वास्तव
में आहार मूल (परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त होता है। इसीलिए
सर्व को पूज्य पूर्ण परमात्मा ही सिद्ध हुआ। यह भी नहीं कहा जा सकता कि पत्तों
तक आहार पहुंचाने में तना, डार तथा शाखाओं का कोई योगदान नहीं है। इसलिए
सर्व आदरणीय हैं, परन्तु पूजनीय तो केवल मूल (जड़) ही होती है। आदर तथा
पूजा में अंतर होता है। जैसे पतिव्रता स्त्रा सत्कार तो सर्व का करती है, जैसे जेठ
का बड़े भाई सम, देवर का छोटे भाई सम, परन्तु पूजा अपने पति की ही करती
है अर्थात् जो भाव अपने पति में होता है ऐसा अन्य पुरुष में पतिव्रता स्त्रा का नहीं
हो सकता।
दूसरा उदाहरण - एक समय हरियाणा प्रांत में बाढ़ आई थी। उस समय छः
सौ करोड़ का नुकसान हुआ था। उसकी पूर्ति हरियाणा सरकार नहीं कर सकती
थी, क्योंकि हरियाणा सरकार का पूरे वर्ष का बजट ही नौ सौ करोड़ रूपये का था।
देश के प्रधान मंत्रा जी ने वह क्षति पूर्ति की थी। उस छः सौ करोड़ रूपयों का
वितरण हरियाणा सरकार के अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने किया था। राहत
प्राप्तकर्ता जो अनजान हैं, वे उस वितरण कर्ता को ही राहत कर्ता मान लेते हैं।
उन्हीं से भविष्य में भी अन्य राहत की आशा करते रहते हैं। उसी की पूजा (रिश्वत
आदि देना) करते रहते हैं। परन्तु जो शिक्षित हैं वे जानते हैं कि इस कर्मचारी का
कितना योगदान है। वे आदर तो करते हैं परन्तु पूजा (रिश्वत आदि देना) नहीं
करते। न ही अन्य कार्य की सिद्धि की आशा करते।
बाढ़ राहत राशि वितरण के पश्चात् उसी क्षेत्रा में प्रांत के मंत्रा जी आए,
उन्होंने कहा कि मैंने आप के क्षेत्रा में दस लाख रूपया दिया। उसी गाँव की सूची
से नाम पढ़कर सुनाए 1. रामअवतार को दस हजार रूपये ... आदि दिया। फिर
प्रांत के मुख्यमंत्रा जी उसी गाँव में आए। उन्होंने भी वही सूची पढ़ी तथा कहा कि
मैंने आपके गाँव में दस लाख रूपये दिये 1. रामअवतार को दस हजार रूपये ..
... आदि दिए। फिर उसी गाँव में देश के प्रधानमंत्रा जी आए। उन्होंने भी कहा
मैंने आपके गाँव को दस लाख रूपये दिए तथा वही सूची पढ़कर सुनाई जिसमें
लिखा था 1. रामअवतार को दस हजार रूपये दिए। रामअवतार कह रहा है कि
यह सब झूठ बोल रहे हैं। मुझे तो रूपये पटवारी ने दिए हैं। वह अनजान रामअवतार अज्ञानता वश गाँव के पटवारी जी की ही पूजा कर अपने अन्य सर्व
कार्यों की सिद्धि चाहता है। जो शिक्षित हैं वे जान लेते हैं कि प्रधानमंत्रा जी राहत
नहीं देते तो मुख्यमंत्रा जी, मंत्रा जी तथा पटवारी जी कुछ नहीं दे सकते थे। यदि
मुख्यमंत्रा जी भी अपने राहत कोश से राशी वितरण करते तो सौ-सौ रूपये
कठिनता से बाढ़ पीडि़तों को दे पाते जो नाम मात्रा होती। इस प्रकार समझदार
व्यक्ति जान लेता है कि किसकी कितनी औकात (क्षमता) है। उसी आधार से उनमें
आस्था रहती है। अनादरणीय कोई नहीं होता, परन्तु पूजा के लिए सोच-समझ कर
चयन करता है। ठीक इसी प्रकार गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन
बहुत बड़े जलाशय की (जिसका जल दस वर्ष भी वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं
होता) प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय (जिसका जल एक वर्षा न होने से ही समाप्त
हो जाता है) में जैसी आस्था रह जाती है, इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा से मिलने वाले
लाभ के ज्ञान से परिचित होने के पश्चात् तेरी आस्था अन्य प्रभुओं में वैसी ही रह
जाएगी। वह छोटा जलाशय बुरा नहीं लगता, परन्तु उसकी क्षमता का पता है कि
यह तो काम चलाऊ है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों से जो कुछ भी
हो रहा है (जैसे रजगुण-ब्रह्मा से जीवों की उत्पत्ति, सतगुण-विष्णु से स्थिति तथा
तमगुण-शिव से संहार) इसका मुख्य कारण मैं (ब्रह्म/काल) ही हूँ। जो साधक तीनों
गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की पूजा करते हैं वे राक्षस स्वभाव
को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म की भक्ति भी
नहीं करते। फिर अपनी भक्ति को अति घटिया (अनुत्तमाम्) कहा है। गीता अध्याय
7 श्लोक 18 में, इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62
में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से ही पूर्ण लाभ पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता
है। जो शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति है तथा अन्य प्रभुओं की ईष्ट रूप में साधना
शास्त्रा विधि के विरुद्ध होने से व्यर्थ है (प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23.24 में)।
जैसे आम का पौधा नर्सरी से ला कर उसके मूल को जमीन में गड्डा खोद
कर दबाएगें। फिर मूल की सिंचाई (पूजा) करेंगे तो पौधा बड़ा होगा तथा पेड़ बन
जाएगा। फिर शाखाओं को फल लगेंगे। यदि कोई शाखाओं को जमीन में दबा कर,
मूल ऊपर को करके पौधे की सिंचाई करेगा तो पौधा सूख जाएगा। (कृप्या देखें
सीधा बीजा हुआ व उल्टा बीजा हुआ भक्ति रूपी पौधे का चित्रा इसी पुस्तक के पृष्ठ
197.198 पर)
भावार्थ है कि साधक को पूर्ण परमात्मा (मूल) की साधना (पूजा) ईष्ट रूप
में करने से उसका फल तीनों ब्रह्मा, विष्णु, शिव (शाखाऐं) ही प्रदान करेंगे। क्योंकि
यह भगवान किए कर्म का फल ज्यों का त्यों ही देते हैं।
यदि आपको किसी कंपनी में नौकरी प्राप्त करनी है तो पूजा कंपनी (फैक्ट्री)
के मालिक की करनी होती है। उसे प्रार्थना पत्रा द्वारा याचना करके नौकरी प्राप्त
करनी होती है। फिर भी नौकरी (पूजा) मालिक की ही करता है। जैसे जो कार्य उस नौकर को बताया जाता है वह अपने सेवा काल में करता है। यह पूजा
(नौकरी) मालिक की हुई। नौकरी (पूजा) का किया मेहनताना उस मालिक के अन्य
नौकर (कर्मचारी या अधिकारी) देता है। जैसे शिफ्ट ऑफिसर उपस्थिति के आधार
पर मेहनताना (किया कर्म का फल) बना कर खजाँची (कैशियर) के पास भेजता
है। वहाँ से उस नौकर (सेवक) को सेवा (पूजा) का फल प्राप्त होता है। शिफ्ट
ऑफिसर तथा कैशियर केवल किया कर्म ही देते हैं। उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर
सकते हैं। न तो एक रूपया अधिक दे सकते हैं तथा न ही कम कर सकते हैं। यदि
वह कंपनी के मालिक का नौकर (पुजारी) नेक नीति से नौकरी (पूजा) मालिक की
करता है तो मालिक ही उसी सेवा की धनराशि में वृद्धि कर देता है तथा अलग
से ईनाम रूप में धन राशि अधिक दे देता है। यदि कोई मालिक की नौकरी (पूजा)
त्याग कर अन्य अधिकारियों की नौकरी (पूजा) करने लग जाए तो उसको मालिक
से मिलने वाला धन लाभ बंद हो जाता है। जिस कारण से वह नादान निर्धन हो
जाता है। अधिकारीगण उसे उतना मेहनताना नहीं दे सकते। फैक्ट्री मालिक की
तुलना में बहुत कम सुविधा मिलने के कारण वह अन्य अधिकारियों का सेवक
अर्थात् एक मालिक को त्याग कर आन उपासना करने वाला व्यक्ति महादुःखी हो
जाता है।कृप्या इसी प्रकार तत्वज्ञान के आधार से पवित्रा श्रीमद् भगवत गीता जी
के ज्ञान को समझें।
पूर्णब्रह्म कुल मालिक की पूजा त्याग कर अन्य देवताओं की पूजा करने से
साधक को पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता तथा साधक साधना करते-करते भी महाकष्ट
उठाता रहता है।
इसीलिए पवित्रा गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक तीनों
गुणों अर्थात् तीनों देवताओं (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण-शिवजी) की
पूजा करने वालों को राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म
करने वाले मूर्ख कहा है कि वे मेरी (ब्रह्म क्षर पुरुष अर्थात् फैक्ट्री मालिक के शिफ्ट
ऑफिसर की) पूजा (नौकरी) नहीं करते। भावार्थ है कि जो तीनों देवताओं तथा
अन्य देवताओं की पूजा करते हैं (कैशियर की नौकरी करते हैं) उन्हें मूर्ख तथा
राक्षस स्वभाव वाले राक्षस कहा है। जैसे जिस व्यक्ति की आय का साधन कम होता
है वह कुछ हेरा-फेरी अवश्य करता है। कभी चोरी या मिलावट आदि छल-कपट का
मार्ग अपनाता है। जिस कारण समाज में हेय हो जाता है तथा दारिद्र हो जाता
है। इसी प्रकार तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिवजी) व अन्य
देवताओं की पूजा से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता। जिस कारण से साधक झूठ कपट
तथा अन्य विकार भी करता रहता है। फिर पाप कर्म का दण्ड भी भोगना पड़ता
है। इसलिए ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष (शिफ्ट ऑफिसर) कह रहा है कि ये नादान
साधक मेरी पूजा (नौकरी) भी नहीं करते। मैं इन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से अधिक
मेहनताना (किया कर्म का धन) दे सकता हूँ जो उपरोक्त प्रभुओं से ज्यादा होता
है। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मेरी पूजा (नौकरी) भी पूर्ण लाभदायक नहीं है। इसलिए अपनी पूजा को भी गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म/ क्षर पुरुष)
प्रभु ने (अनुत्तमाम्) अति घटिया अर्थात् अति निम्न स्तर की कहा है। इसलिए गीता
अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमेश्वर की
शरण में जा जिसकी कृपा से तू परम शांति को तथा सतलोक (शाश्वत् स्थान) को
प्राप्त होगा। वहाँ जाने के बाद साधक का पुनर् जन्म नहीं होता अर्थात् अनादि मोक्ष
(पूर्ण मोक्ष) प्राप्त हो जाता है तथा गीता ज्ञान दाता प्रभु (क्षर पुरुष/ ब्रह्म) कह
रहा है कि मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। गीता अध्याय 7 श्लोक
12 से 15ए 18 व 20 से 23 को समझने के लिए कृप्या निम्न विवरण ध्यान पूवर्क
पढें।
होती है। जीवात्मा परमात्मा से बिछुड़ने के पश्चात् महा कष्ट झेल रही है। जो सुख
पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) के सतलोक (ऋतधाम) में था, वह सुख यहाँ काल (ब्रह्म) प्रभु
के लोक में नहीं है। चाहे कोई करोड़पति है, चाहे पृथ्वीपति(सर्व पृथ्वी का राजा)
है, चाहे सुरपति(स्वर्ग का राजा इन्द्र) है, चाहे श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव
त्रिलोकपति हैं। क्योंकि जन्म तथा मृत्यु तथा किये कर्म का भोग अवश्य ही प्राप्त
होता है (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5)। इसीलिए पवित्रा
श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञान दाता प्रभु (काल भगवान) ने अध्याय 15 श्लोक 1 से
4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि अर्जुन सर्व भाव से उस परमेश्वर की
शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शांति को तथा सतलोक (शाश्वतम्
स्थानम्) को प्राप्त होगा। उस परमेश्वर के तत्व ज्ञान व भक्ति मार्ग को मैं (गीता
ज्ञान दाता) नहीं जानता। उस तत्व ज्ञान को तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनको
दण्डवत प्रणाम कर तथा विनम्र भाव से प्रश्न कर, तब वे तत्वदृष्टा संत आपको
परमेश्वर का तत्व ज्ञान बताएंगे। फिर उनके बताए भक्ति मार्ग पर सर्व भाव से लग
जा (प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34)। तत्वदर्शी संत की पहचान गीता अध्याय
15 श्लोक 1 में बताते हुए कहा है कि यह संसार उल्टे लटके हुए वृक्ष की तरह
है। जिसकी ऊपर को मूल तथा नीचे को शाखा है। जो इस संसार रूपी वृक्ष के
विषय में जानता है वह तत्वदर्शी संत है। गीता अध्याय 15 श्लोक 2 से 4 में कहा है कि उस संसार रूपी वृक्ष की तीनों गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव)
रूपी शाखा है। जो (स्वर्ग लोक, पाताल लोक तथा पृथ्वी लोक) तीनों लोकों में
ऊपर तथा नीचे फैली हैं। उस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष के विषय में अर्थात्
सृष्टी रचना के बारे में मैं इस गीता जी के ज्ञान में नहीं बता पाऊंगा। यहां विचार
काल में (गीता ज्ञान) जो ज्ञान आपको बता रहा हूँ यह पूर्ण ज्ञान नहीं है। उसके
लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में संकेत किया है जिसमें कहा है कि पूर्ण ज्ञान
(तत्व ज्ञान) के लिए तत्वदर्शी संत के पास जा, वही बताएंगे। मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं
है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात्
उस परमपद परमेश्वर (जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है)
की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक पुनर् लौटकर वापिस नहीं
आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। जिस पूर्ण परमात्मा से उल्टे संसार रूपी
वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है। भावार्थ है कि जिस परमेश्वर ने सर्व
ब्रह्मण्डों की रचना की है तथा मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) भी उसी आदि पुरुष
परमेश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरण हूँ। उसकी साधना करने से अनादि मोक्ष
(पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है।
तत्वदर्शी संत वही है जो ऊपर को मूल तथा नीचे को तीनों गुण (रजगुण-ब्रह्म
जी, सतगुण-विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) रूपी शाखाओं तथा तना व मोटी डार
की पूर्ण जानकारी प्रदान करता है। (कृप्या देखें उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष
का चित्रा)
अपने द्वारा रची सृष्टी का पूर्ण ज्ञान (तत्वज्ञान) स्वयं ही पूर्ण परमात्मा
कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने तत्वदर्शी संत की भूमिका करके (कविर्गीर्भिः) कबीर
वाणी द्वारा बताया है (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्रा 16 से 20 तक तथा
ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 90 मंत्रा 1 से 5 तथा अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्रा
1 से 7 में)।
कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, ज्योति निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।
पवित्रा गीता जी में भी तीन प्रभुओं (1. क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, 2. अक्षर पुरुष
अर्थात् परब्रह्म तथा 3. परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) के विषय में वर्णन है। प्रमाण
गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17, अध्याय 8 श्लोक 1 का उत्तर श्लोक 3 में है वह परम
अक्षर ब्रह्म है तथा तीन प्रभुओं का एक और प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 25 में गीता
ज्ञान दाता काल (ब्रह्म) ने अपने विषय में कहा है कि मैं अव्यक्त हूँ। यह प्रथम अव्यक्त
प्रभु हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि यह संसार दिन के समय
अव्यक्त(परब्रह्म) से उत्पन्न हुआ है। फिर रात्रा के समय उसी में लीन हो जाता है।
यह दूसरा अव्यक्त हुआ। अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त से भी
दूसरा जो अव्यक्त(पूर्णब्रह्म) है वह परम दिव्य पुरुष सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी
नष्ट नहीं होता। यह तीसरा अव्यक्त हुआ। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक
17 में भी है कि नाश रहित उस परमात्मा को जान जिसका नाश करने में कोई
समर्थ नहीं है। अपने विषय में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) प्रभु अध्याय 4 मंत्रा 5 तथा
अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि मैं तो जन्म-मृत्यु में अर्थात् नाशवान हूँ।
उपरोक्त संसार रूपी वृक्ष की मूल (जड़) तो परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण
ब्रह्म कविर्देव है। इसी को तीसरा अव्यक्त प्रभु कहा है। वृक्ष की मूल से ही सर्व पेड़
को आहार प्राप्त होता है। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि
वास्तव में परमात्मा तो क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म से
भी अन्य ही है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है वही
वास्तव में अविनाशी है।
1. क्षर का अर्थ है नाशवान। क्योंकि ब्रह्म अर्थात् गीता ज्ञान दाता ने तो स्वयं
कहा है कि अर्जुन तू तथा मैं तो जन्म-मृत्यु में हैं (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक
12, अध्याय 4 श्लोक 5 में)।
2. अक्षर का अर्थ है अविनाशी। यहां परब्रह्म को भी स्थाई अर्थात् अविनाशी
कहा है। परंतु यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। यह चिर स्थाई है जैसे एक
मिट्टी का प्याला है जो सफेद रंग का चाय पीने के काम आता है। वह तो गिरते
ही टूट जाता है। ऐसी स्थिति ब्रह्म (काल अर्थात् क्षर पुरुष) की जानें। दूसरा प्याला
इस्पात (स्टील) का होता है। यह मिट्टी के प्याले की तुलना में अधिक स्थाई
(अविनाशी) लगता है परंतु इसको भी जंग लगता है तथा नष्ट हो जाता है, भले
ही समय ज्यादा लगे। इसलिए यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। तीसरा प्याला
सोने (स्वर्ण) का है। स्वर्ण धातु वास्तव में अविनाशी है जिसका नाश नहीं होता।
जैसे परब्रह्म (अक्षर पुरुष) को अविनाशी भी कहा है तथा वास्तव में अविनाशी
तो इन दोनों से अन्य है, इसलिए अक्षर पुरुष को अविनाशी भी नहीं कहा है ।
कारण :- सात रजगुण ब्रह्मा की मृत्यु के पश्चात् एक सतगुण विष्णु की मृत्यु होती
है। सात सतगुण विष्णु की मृत्यु के पश्चात् एक तमगुण शिव की मृत्यु होती है।
जब तमगुण शिव की 70 हजार बार मृत्यु हो जाती है तब एक क्षर पुरुष (ब्रह्म)
की मृत्यु होती है। यह परब्रह्म (अक्षर पुरुष) का एक युग होता है। एैसे एक हजार
युग का परब्रह्म का एक दिन तथा इतनी ही रात्रा होती है। तीस दिन रात का एक
महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की आयु
है। तब यह परब्रह्म तथा सर्व ब्रह्मण्ड जो सतलोक से नीचे के हैं नष्ट हो जाते हैं।
कुछ समय उपरांत सर्व नीचे के ब्रह्मण्डों (ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोकों) की रचना
पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरुष करता है। इस प्रकार यह तत्व ज्ञान समझना है।
परन्तु परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) तथा उसका सतलोक
(ऋतधाम) सहित ऊपर के अलखलोक, अगम लोक तथा अनामी लोक कभी नष्ट
नहीं होते।
इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में उत्तम प्रभु
अर्थात् पुरुषोत्तम तो ब्रह्म (क्षर पुरुष) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) से अन्य ही है जो पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरुष) है। वही वास्तव में अविनाशी है। वही सर्व का
धारण-पोषण करने वाला संसार रूपी वृक्ष की मूल रूपी पूर्ण परमात्मा है। वृक्ष का
जो भाग जमीन के तुरंत बाहर नजर आता है वह तना कहलाता है। उसे अक्षर
पुरुष (परब्रह्म) जानो। तने को भी आहार मूल (जड़) से प्राप्त होता है। फिर तने
से आगे वृक्ष की कई डार होती हैं उनमें से एक डार ब्रह्म (क्षर पुरुष) है। इसको
भी आहार मूल (जड़) अर्थात् परम अक्षर पुरुष से ही प्राप्त होता है। उस डार (क्षर
पुरुष/ब्रह्म) की मानों तीन गुण (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण-शिव)
रूपी शाखाएं हैं। इन्हें भी आहार मूल (परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त
होता है। इन तीनों शाखाओं से पात रूप में अन्य प्राणी आश्रित हैं। उन्हें भी वास्तव
में आहार मूल (परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त होता है। इसीलिए
सर्व को पूज्य पूर्ण परमात्मा ही सिद्ध हुआ। यह भी नहीं कहा जा सकता कि पत्तों
तक आहार पहुंचाने में तना, डार तथा शाखाओं का कोई योगदान नहीं है। इसलिए
सर्व आदरणीय हैं, परन्तु पूजनीय तो केवल मूल (जड़) ही होती है। आदर तथा
पूजा में अंतर होता है। जैसे पतिव्रता स्त्रा सत्कार तो सर्व का करती है, जैसे जेठ
का बड़े भाई सम, देवर का छोटे भाई सम, परन्तु पूजा अपने पति की ही करती
है अर्थात् जो भाव अपने पति में होता है ऐसा अन्य पुरुष में पतिव्रता स्त्रा का नहीं
हो सकता।
दूसरा उदाहरण - एक समय हरियाणा प्रांत में बाढ़ आई थी। उस समय छः
सौ करोड़ का नुकसान हुआ था। उसकी पूर्ति हरियाणा सरकार नहीं कर सकती
थी, क्योंकि हरियाणा सरकार का पूरे वर्ष का बजट ही नौ सौ करोड़ रूपये का था।
देश के प्रधान मंत्रा जी ने वह क्षति पूर्ति की थी। उस छः सौ करोड़ रूपयों का
वितरण हरियाणा सरकार के अधिकारियों तथा कर्मचारियों ने किया था। राहत
प्राप्तकर्ता जो अनजान हैं, वे उस वितरण कर्ता को ही राहत कर्ता मान लेते हैं।
उन्हीं से भविष्य में भी अन्य राहत की आशा करते रहते हैं। उसी की पूजा (रिश्वत
आदि देना) करते रहते हैं। परन्तु जो शिक्षित हैं वे जानते हैं कि इस कर्मचारी का
कितना योगदान है। वे आदर तो करते हैं परन्तु पूजा (रिश्वत आदि देना) नहीं
करते। न ही अन्य कार्य की सिद्धि की आशा करते।
बाढ़ राहत राशि वितरण के पश्चात् उसी क्षेत्रा में प्रांत के मंत्रा जी आए,
उन्होंने कहा कि मैंने आप के क्षेत्रा में दस लाख रूपया दिया। उसी गाँव की सूची
से नाम पढ़कर सुनाए 1. रामअवतार को दस हजार रूपये ... आदि दिया। फिर
प्रांत के मुख्यमंत्रा जी उसी गाँव में आए। उन्होंने भी वही सूची पढ़ी तथा कहा कि
मैंने आपके गाँव में दस लाख रूपये दिये 1. रामअवतार को दस हजार रूपये ..
... आदि दिए। फिर उसी गाँव में देश के प्रधानमंत्रा जी आए। उन्होंने भी कहा
मैंने आपके गाँव को दस लाख रूपये दिए तथा वही सूची पढ़कर सुनाई जिसमें
लिखा था 1. रामअवतार को दस हजार रूपये दिए। रामअवतार कह रहा है कि
यह सब झूठ बोल रहे हैं। मुझे तो रूपये पटवारी ने दिए हैं। वह अनजान रामअवतार अज्ञानता वश गाँव के पटवारी जी की ही पूजा कर अपने अन्य सर्व
कार्यों की सिद्धि चाहता है। जो शिक्षित हैं वे जान लेते हैं कि प्रधानमंत्रा जी राहत
नहीं देते तो मुख्यमंत्रा जी, मंत्रा जी तथा पटवारी जी कुछ नहीं दे सकते थे। यदि
मुख्यमंत्रा जी भी अपने राहत कोश से राशी वितरण करते तो सौ-सौ रूपये
कठिनता से बाढ़ पीडि़तों को दे पाते जो नाम मात्रा होती। इस प्रकार समझदार
व्यक्ति जान लेता है कि किसकी कितनी औकात (क्षमता) है। उसी आधार से उनमें
आस्था रहती है। अनादरणीय कोई नहीं होता, परन्तु पूजा के लिए सोच-समझ कर
चयन करता है। ठीक इसी प्रकार गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि अर्जुन
बहुत बड़े जलाशय की (जिसका जल दस वर्ष भी वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं
होता) प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाशय (जिसका जल एक वर्षा न होने से ही समाप्त
हो जाता है) में जैसी आस्था रह जाती है, इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा से मिलने वाले
लाभ के ज्ञान से परिचित होने के पश्चात् तेरी आस्था अन्य प्रभुओं में वैसी ही रह
जाएगी। वह छोटा जलाशय बुरा नहीं लगता, परन्तु उसकी क्षमता का पता है कि
यह तो काम चलाऊ है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों से जो कुछ भी
हो रहा है (जैसे रजगुण-ब्रह्मा से जीवों की उत्पत्ति, सतगुण-विष्णु से स्थिति तथा
तमगुण-शिव से संहार) इसका मुख्य कारण मैं (ब्रह्म/काल) ही हूँ। जो साधक तीनों
गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की पूजा करते हैं वे राक्षस स्वभाव
को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म की भक्ति भी
नहीं करते। फिर अपनी भक्ति को अति घटिया (अनुत्तमाम्) कहा है। गीता अध्याय
7 श्लोक 18 में, इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62
में कहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से ही पूर्ण लाभ पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता
है। जो शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति है तथा अन्य प्रभुओं की ईष्ट रूप में साधना
शास्त्रा विधि के विरुद्ध होने से व्यर्थ है (प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23.24 में)।
जैसे आम का पौधा नर्सरी से ला कर उसके मूल को जमीन में गड्डा खोद
कर दबाएगें। फिर मूल की सिंचाई (पूजा) करेंगे तो पौधा बड़ा होगा तथा पेड़ बन
जाएगा। फिर शाखाओं को फल लगेंगे। यदि कोई शाखाओं को जमीन में दबा कर,
मूल ऊपर को करके पौधे की सिंचाई करेगा तो पौधा सूख जाएगा। (कृप्या देखें
सीधा बीजा हुआ व उल्टा बीजा हुआ भक्ति रूपी पौधे का चित्रा इसी पुस्तक के पृष्ठ
197.198 पर)
भावार्थ है कि साधक को पूर्ण परमात्मा (मूल) की साधना (पूजा) ईष्ट रूप
में करने से उसका फल तीनों ब्रह्मा, विष्णु, शिव (शाखाऐं) ही प्रदान करेंगे। क्योंकि
यह भगवान किए कर्म का फल ज्यों का त्यों ही देते हैं।
यदि आपको किसी कंपनी में नौकरी प्राप्त करनी है तो पूजा कंपनी (फैक्ट्री)
के मालिक की करनी होती है। उसे प्रार्थना पत्रा द्वारा याचना करके नौकरी प्राप्त
करनी होती है। फिर भी नौकरी (पूजा) मालिक की ही करता है। जैसे जो कार्य उस नौकर को बताया जाता है वह अपने सेवा काल में करता है। यह पूजा
(नौकरी) मालिक की हुई। नौकरी (पूजा) का किया मेहनताना उस मालिक के अन्य
नौकर (कर्मचारी या अधिकारी) देता है। जैसे शिफ्ट ऑफिसर उपस्थिति के आधार
पर मेहनताना (किया कर्म का फल) बना कर खजाँची (कैशियर) के पास भेजता
है। वहाँ से उस नौकर (सेवक) को सेवा (पूजा) का फल प्राप्त होता है। शिफ्ट
ऑफिसर तथा कैशियर केवल किया कर्म ही देते हैं। उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर
सकते हैं। न तो एक रूपया अधिक दे सकते हैं तथा न ही कम कर सकते हैं। यदि
वह कंपनी के मालिक का नौकर (पुजारी) नेक नीति से नौकरी (पूजा) मालिक की
करता है तो मालिक ही उसी सेवा की धनराशि में वृद्धि कर देता है तथा अलग
से ईनाम रूप में धन राशि अधिक दे देता है। यदि कोई मालिक की नौकरी (पूजा)
त्याग कर अन्य अधिकारियों की नौकरी (पूजा) करने लग जाए तो उसको मालिक
से मिलने वाला धन लाभ बंद हो जाता है। जिस कारण से वह नादान निर्धन हो
जाता है। अधिकारीगण उसे उतना मेहनताना नहीं दे सकते। फैक्ट्री मालिक की
तुलना में बहुत कम सुविधा मिलने के कारण वह अन्य अधिकारियों का सेवक
अर्थात् एक मालिक को त्याग कर आन उपासना करने वाला व्यक्ति महादुःखी हो
जाता है।कृप्या इसी प्रकार तत्वज्ञान के आधार से पवित्रा श्रीमद् भगवत गीता जी
के ज्ञान को समझें।
पूर्णब्रह्म कुल मालिक की पूजा त्याग कर अन्य देवताओं की पूजा करने से
साधक को पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता तथा साधक साधना करते-करते भी महाकष्ट
उठाता रहता है।
इसीलिए पवित्रा गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक तीनों
गुणों अर्थात् तीनों देवताओं (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण-शिवजी) की
पूजा करने वालों को राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म
करने वाले मूर्ख कहा है कि वे मेरी (ब्रह्म क्षर पुरुष अर्थात् फैक्ट्री मालिक के शिफ्ट
ऑफिसर की) पूजा (नौकरी) नहीं करते। भावार्थ है कि जो तीनों देवताओं तथा
अन्य देवताओं की पूजा करते हैं (कैशियर की नौकरी करते हैं) उन्हें मूर्ख तथा
राक्षस स्वभाव वाले राक्षस कहा है। जैसे जिस व्यक्ति की आय का साधन कम होता
है वह कुछ हेरा-फेरी अवश्य करता है। कभी चोरी या मिलावट आदि छल-कपट का
मार्ग अपनाता है। जिस कारण समाज में हेय हो जाता है तथा दारिद्र हो जाता
है। इसी प्रकार तीनों देवताओं (श्री ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिवजी) व अन्य
देवताओं की पूजा से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं होता। जिस कारण से साधक झूठ कपट
तथा अन्य विकार भी करता रहता है। फिर पाप कर्म का दण्ड भी भोगना पड़ता
है। इसलिए ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष (शिफ्ट ऑफिसर) कह रहा है कि ये नादान
साधक मेरी पूजा (नौकरी) भी नहीं करते। मैं इन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से अधिक
मेहनताना (किया कर्म का धन) दे सकता हूँ जो उपरोक्त प्रभुओं से ज्यादा होता
है। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मेरी पूजा (नौकरी) भी पूर्ण लाभदायक नहीं है। इसलिए अपनी पूजा को भी गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म/ क्षर पुरुष)
प्रभु ने (अनुत्तमाम्) अति घटिया अर्थात् अति निम्न स्तर की कहा है। इसलिए गीता
अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमेश्वर की
शरण में जा जिसकी कृपा से तू परम शांति को तथा सतलोक (शाश्वत् स्थान) को
प्राप्त होगा। वहाँ जाने के बाद साधक का पुनर् जन्म नहीं होता अर्थात् अनादि मोक्ष
(पूर्ण मोक्ष) प्राप्त हो जाता है तथा गीता ज्ञान दाता प्रभु (क्षर पुरुष/ ब्रह्म) कह
रहा है कि मैं भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। गीता अध्याय 7 श्लोक
12 से 15ए 18 व 20 से 23 को समझने के लिए कृप्या निम्न विवरण ध्यान पूवर्क
पढें।
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